दीप बनकर जलूँगा मैं

दीप बनकर जलूँगा मैं
प्रिये तुम्हारी राह में
जानता हूँ इस जगत में
फूल की है आयु कितनी
और साँसों की उतरती
साँस में है वायु कितनी
अपनी जीवन वायु
भर दूँगा तेरे नि:श्वास में
दीप बनकर जलूँगा मैं
प्रिये तुम्हारी राह में ॥

जीवन समर में लड़ते-लड़ते
तुम जो कुम्हला जाओगे
दिवस के अवसान पर
जब तुम थक से जाओगे
बन संजीवन शक्ति
भर दूँगा तेरे उत्साह में
ध्रुवतारे सा दिखूंगा
तेरे नयनाकाश में
दीप बनकर जलूँगा मैं
प्रिये तुम्हारी राह में ॥

गर प्रलय की घड़ी भी आ जाए,
कोई गम न कर
सब सहारे छूट भी जाए
तो कोई गम न कर
तिनका बनकर मैं
मिलूंगा भंवर में, मंझधार में
दीप बनकर जलूँगा मैं
प्रिये तुम्हारी राह में ॥

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